क्या है कल्पवास और उसका महत्व, मन की शुद्धि के लिए करें कल्पवास

क्या है कल्पवास और उसका महत्व

मन की शुद्धि के लिए कल्पवास

कल्पवास माघ महीने में किया जाने वाला व्रत होता है, जिसका उद्देश्य अपने मन में उपस्थित विकारों को निकालना और अक्षय पुण्य की प्राप्ति है। एक महीने का यह व्रत पूरे वर्ष को पुण्य मय बना देता है।

तीर्थराज प्रयाग का माघ मेला महज नदियों का ही नहीं अपितु आस्था, दर्शन, अध्यात्म और विविध संस्कृतियों का अनूठा संगम है। यह स्नान पर्व एक महीने तक चलता है। इस पर्व के दौरान संगम तट पर कल्प वास करने का पौराणिक और आध्यात्मिक महत्व है। इस पर्व के दौरान लोग एक महीने तक प्रयाग के संगम तट पर रहकर कल्पवास करते हैं। सदियों में चली आ रही यह परंपरा आधुनिक युग में अत्यंत महत्वपूर्ण है। कल्पवास की पद्धतियां भी कुछ प्रांतों में भिन्न-भिन्न है। कुछ लोग पौष पूर्णिमा से और कुछ लोग मकर संक्रांति से इसे प्रारंभ करते हैं।

क्या है कल्पवास

कल्पवास एक ऐसा व्रत है, जो प्रयाग आदि तीर्थों के तट पर किया जाता है। यह बहुत ही कठिन व्रत होता है। इस व्रत में सूर्योदय से पूर्व स्नान, पुनः मध्यान्ह व सायंकाल तीन बार स्नान का विधान है। इसके साथ ही दिन में एक बार भोजन करने का विधान है। हालांकि अधिकांश लोग केवल सुबह व शाम स्नान करते हैं। यह व्रत एक माह में पूर्ण होता है। कल्पवास का अपना एक अलग विधान है। जो श्रद्धालु लगातार 12 वर्ष तक कल्पवास करते हैं, वह मोक्ष के भागी हो जाते हैं।

यह व्रत आरंभ करने से पहले संकल्प लेना जरूरी होता है। इस में “श्री स्वते वराह कल्पे” का संबोधन किया जाता है। इस कल्प का तात्पर्य यह है कि सृष्टि के कल्प का एक अर्थ तो सृष्टि के साथ जुड़ा है और दूसरे कल्प का तात्पर्य कायाकल्प से है।

इसका अर्थ शरीर का शोधन है। इस कल्प को करने का आयुर्वेद शास्त्र मे अलग-अलग विधान है। जैसे दुग्ध कल्प, जिसमें एक निश्चित समय तक दूध अथवा मट्ठे का सेवन कर शरीर का कायाकल्प किया जाता है। गंगा तट पर गंगा जल पीकर एक वक्त भोजन, भजन कीर्तन, सूर्य अर्घ, स्नान आदि धार्मिक कृत्यों से शरीर का शोधन अर्थात शरीर को जोड़ने की प्रक्रिया ही कल्पवास की वैज्ञानिक प्रक्रिया है। इसके अलावा बारह वर्ष का भी अपना महत्व है और इतने समय के बाद ही कुम्भ भी आता है।

कल्पवास में गंगा का भी महत्व है क्योंकि यह मोक्ष की समवाहिका मानी जाती है। “गंगा तव दर्शनात मुक्ति” इसका अर्थ है कि गंगा के दर्शन मात्र से श्रद्धालु के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है, “दरस परस मुख मजुन पाना हरहि पाप कह वेद पुराना”। यही कारण है कि पतित पावनी गंगा के तट पर लोग एक मास तक उसके जल का सेवन करते हैं और उत्तरायण सूर्य के सानिध्य रहते हुए समस्त जीवन को पुण्यमय बना लेते हैं। यहां पर सभी लोग एक प्रकार से अपने शरीर के अंदर व्याप्त विकारों को दूर करने के लिए भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का सहारा लेते हैं। यही कल्पवास का वास्तविक लक्ष्य है। यही कारण है कि सदियों से यह परंपरा चली आ रही है।

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